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शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2016

ग़ज़ल

उस जगह की पहले सी क्यों, शामो-सहर नहीं है,
क्यों तेरा शहर मेरा शहर नहीं है।

जब भी आया यहां मेहमान की तरह,
सोचता हूँ तेरे शहर में क्यों घर नहीं है।

मय से लबालब मयकदा तेरा साकी,
मुझको क्यूँ इक बूँद भी मयस्सर नहीं है।

दिल में यादों की रोशनी उतनी ही तेज है,
ये शहर तो पतंगा है जिसको खबर नहीं है।

तेरी यादों का मौसम है कि बेवक्त आता है,
मैं आ गया हूँ पर तेरी खबर नहीं है।

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