छोटी-छोटी जंगली बेरों की
पुड़िया बनाकर
नमक के साथ
बाँस की टोकरी में
किसी धरोहर की तरह
सँम्भालकर बैठी-बैठी आवाज़ देती
बीस रुपये में बेर लेलो....
बीस रुपये में भी मोल-भाव
कुछ बिके कुछ शेष
थोड़ा मूल्य पर असमंजस
और अचरज मुझको भी हुआ।
मैं भी तमाम झाड़ों से
बेर तोड़नें का साहस जुटाया
तब पता चला साहब
मूल्य बेरों का नहीं
उन तीखे चुभते खारों के जख्मों का था
जो बेरों को सहेजनें में उसने खाए थे।
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