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सोमवार, 14 दिसंबर 2015

ग़ज़ल

दिल के जख्मों पर, मलहम लगा दिया,
वरना नासूर हो जाता, तो क्या करता।

नामूमकिन ख्वाबों को, खामोश कर दिया,
ग़र कसूर हो जाता, तो क्या करता।

मैं भी रिस्तों की कसाकसी में, मिजाजी न था,
अगर कोई दूर हो जाता, तो क्या करता।

वो कमजोरी समझते रहे, मेरी फिसलन को,
कोई मजबूर हो जाता, तो क्या करता।

वक्त के पीछे भागना, छोड़ दिया मैंने,
थककर चूर हो जाता, तो क्या करता।

जा तेरी रंगत पर, लट्टू नहीं हूँ 'अयुज'
कोई बनने से हूर हो जाता, तो क्या करता।

             
         

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