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शुक्रवार, 8 जनवरी 2016

ग़ज़ल

क्या कहूँ दिल-ए-नादान से कैसे निजात करता हूँ,
अब तो आलम ये है खुद ही से बात करता हूँ।

तेरी बेरूखी का नतीज़ा ये कैसा हुआ,
बेवज़ह अब खिज़ा में रंगत की बात करता हूँ।

कभी देख तो मेरे दीवानेपन की हालत,
कूँचे में तेरे रहकर तेरी ही बात करता हूँ।

तुझको खो देने का ग़म तो है कहीं-न-कहीं,
आज भी उस खुशनुमाँ मोहलत की बात करता हूँ।

वो और होंगे जो मौत से डर गये,
मैं तो हर रोज़ कयामत की बात करता हूँ।

कोई बात तो है तेरे सज़दे के पीछे,
तभी तो तेरी ही जियारत की बात करता हूँ।

खुद को बदल डाला तेरी खुशी की खातिर,
अब तो हर शख्स से सोहबत की बात करता हूँ।

जीवन की सच्चाई तसब्बुर में कहाँ दिखती है,
'अयुज' न शिकवे न शिकायत की बात करता हूँ।

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