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रविवार, 10 जुलाई 2016

समसामयिक

आसार नहीं अच्छे दिन के, 
ये केसर क्यारी के दंगल।
नहीं भा रहे सेव बंगीचे, 
बना कुछ दिनों से जंगल। 

विदेश नीतियां ठीक हैं लेकिन, 
राष्ट्रनीति भी जरुरी है।
रक्षक के होते ये हालत, 
कह दो क्या मजबूरी है।

आस हमारी टूट रही अब, 
जो तुमने बंधवाया था।
छप्पन इंची सीना ताने, 
जो नारे लगवाया था।

इक्कीसवीं सदी उज्वल भविष्य, 
क्या अब भी सोच रखेंगे अब? 
नाकारे जब जंगी होंगे, 
क्या कुछ न तोड़ सकेंगे अब? 

                

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