मनुज अवस्था का सबसे, स्वर्णिम दिन है बचपन,
किसी बात की फिक्र नहीं, हर ग़म से रीता बचपन।
हर पहलू सिंहासन अपना,
हर किसी पे तानाशाही।
अपना हो या बेगाना,
करता अपनी ही नौकरशाही।
अपने और पराये में, हर हम में बीता बचपन,
किसी बात की फिक्र नहीं...........
पापा ग़र आह्लादित होते, गली-गली टहलाते,
मम्मी की तो बात ही क्या थी, लोरी गा-गाकर सुनाती सिर सहलाते।
हर आंचल के स्नेह से, नवनीता बचपन,
किसी बात की फिक्र नहीं........
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